Tuesday, December 11, 2007

गुलज़ार के प्रेमचंद

Its really nice to read gulzar’s thought on Munshi ji…Most of the stories of Munshi Premchand was in my school syllabus.. and almost all the the stories has same deplorable end.

Agar Munshi ji ke shabdo main kahe to har kahani un-suna sa dard chod jaati thi..main humesha sochta tha ki yeh ..aisa mukhye kirdar ke saath hi kya hota hai…

And today I found same feel in gulzar’s thought…Gulzar’s expressions are awesome.. the way he expressed.. I don’t think no one else can do…



'प्रेमचंद की सोहबत तो अच्छी लगती है
लेकिन उनकी सोहबत में तकलीफ़ बहुत है...
मुंशी जी आप ने कितने दर्द दिए हैं

हम को भी और जिनको आप ने पीस पीस के मारा है
कितने दर्द दिए हैं आप ने हम को मुंशी जी

‘होरी’ को पिसते रहना और एक सदी तकपोर पोर दिखलाते रहे हो
किस गाय की पूंछ पकड़ के बैकुंठ पार कराना था
सड़क किनारे पत्थर कूटते जान गंवा दी
और सड़क न पार हुई, या तुम ने करवाई नही

‘धनिया’ बच्चे जनती, पालती अपने और पराए भी
ख़ाली गोद रही आख़िर कहती रही डूबना ही क़िस्मत में है
तोबोल गढ़ी क्या और गंगा क्या

‘हामिद की दादी’ बैठी चूल्हे पर हाथ जलाती रही
कितनी देर लगाई तुमने एक चिमटा पकड़ाने में‘

घीसू’ ने भी कूज़ा कूज़ा उम्र की सारी बोतल पी ली
तलछट चाट के अख़िर उसकी बुद्धि फूटी
नंगे जी सकते हैं तो फिर बिना कफ़न जलने में क्या है
‘एक सेर इक पाव गंदुम’, दाना दाना सूद चुकाते
सांस की गिनती छूट गई है

तीन तीन पुश्तों को बंधुआ मज़दूरी में बांध के तुमने क़लम उठा ली
‘शंकर महतो’ की नस्लें अब तक वो सूद चुकाती हैं,
‘ठाकुर का कुआँ’, और ठाकुर के कुएँ से एक लोटा पानी
एक लोटे पानी के लिए दिल के सोते सूख गए
‘झोंकू’ के जिस्म में एक बार फिर ‘रायदास’ को मारा तुम ने

मुंशी जी आप विधाता तो न थे, लेखक थे,
अपने किरदारों की क़िस्मत तो लिख सकते थे?'